बिहार में होने वाले आगामी चुनावों से ठीक पहले महागठबंधन के भीतर कांग्रेस पार्टी की हैसियत और भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेतृत्व वाले गठबंधन में कांग्रेस भले ही रिश्ते सुधारने का दावा कर रही हो, लेकिन जमीनी हकीकत यह बताती है कि वह अपनी राजनीतिक 'अहमियत' साबित करने में बुरी तरह विफल रही है। कांग्रेस के बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरु के करीबी सूत्रों के हवाले से यह बात सामने आई है कि महागठबंधन की प्रेस कॉन्फ्रेंस में जो घोषणाएं हुईं, वे कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व—खासकर राहुल गांधी—की मंशा के बिल्कुल विपरीत थीं। घोषणाएं पूरी तरह से आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव की इच्छा के अनुरूप हुईं, जिसका सीधा मतलब था कि कांग्रेस की मांग और शर्तों को नजरअंदाज कर दिया गया।
मुकेश सहनी ने मारी बाजी, कांग्रेस हुई दरकिनार
महागठबंधन में सीट बंटवारे के बाद कांग्रेस की स्थिति विकासशील इंसान पार्टी (VIP) के नेता मुकेश सहनी से भी कमजोर दिखाई दे रही है। जहां सहनी ने अपनी 15 सीटों की दावेदारी के मुकाबले कुछ सीटों पर सफलता हासिल की, वहीं कांग्रेस को अपनी झोली में आए टिकटों के लिए भी समझौता करना पड़ा। हैरानी की बात यह है कि आरजेडी ने अपना एक भी उम्मीदवार वापस नहीं लिया, जबकि कांग्रेस को अपने दो उम्मीदवारों का नामांकन वापस कराना पड़ा। इसके बावजूद, कुछ सीटों पर 'दोस्ताना मुकाबला' (Friendly Contest) जारी है, जो गठबंधन में तालमेल की कमी को उजागर करता है।
सहनी का सरप्राइज फैक्टर: तेजस्वी यादव का मुख्यमंत्री पद का चेहरा होना पहले से ही लगभग तय था, लेकिन मुकेश सहनी का 'सरप्राइज' फैक्टर बनकर सामने आना और अपनी डिमांड मनवाना कांग्रेस की कमजोर मोलभाव क्षमता को दिखाता है। कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी को खास लाभ नहीं मिला, जबकि वीआईपी नेता सहनी ने बड़ी राजनीतिक बाजी मार ली।
नेतृत्व का द्वंद्व: लालू की मर्जी बनाम राहुल की रणनीति
राजनीतिक गलियारों में यह बहस तेज है कि अगर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बिहार चुनाव को छह महीने का वक्त नहीं दिया होता, तो भी क्या सीट बंटवारे में उन्हें इससे कम मिलता? कांग्रेस के हिस्से यह निराशा इसलिए भी आई, क्योंकि पार्टी नेतृत्व ने पहले आरजेडी के सामने झुकने से मना कर दिया था। तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा सार्वजनिक रूप से स्वीकार न करना, खासकर आईआरसीटीसी मामले में उनके खिलाफ आरोप तय होने के बाद, राहुल गांधी के लिए एक राजनीतिक मजबूरी थी। लेकिन अंतिम परिणाम यह निकला कि कांग्रेस पूरी तरह से आरजेडी नेतृत्व की 'कृपा' की पात्र बनकर रह गई है। कई विश्लेषक इसे लालू यादव के आगे राहुल गांधी का 'सरेंडर' मान रहे हैं।
पूर्व में, राहुल गांधी ने तेजस्वी के जातिगत गणना के दावे पर सवाल उठाया था और इसे 'फर्जी' करार दिया था। उन्होंने लालू परिवार की मर्जी के खिलाफ कन्हैया कुमार की 'पलायन रोको, नौकरी दो' यात्रा का समर्थन करने के लिए बेगूसराय तक का दौरा भी किया था, लेकिन बाद में यात्रा को रोक दिया गया और कन्हैया कुमार को भी राजनीतिक परिदृश्य से लगभग हटा लिया गया।
आंतरिक कलह और कृष्णा अल्लावरु पर गाज
महागठबंधन में असफलता के कारण कांग्रेस के भीतर आंतरिक कलह भी चरम पर है। बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरु पर कार्रवाई हुई है और उनसे यूथ कांग्रेस का प्रभार वापस ले लिया गया है, जिसे उन पर हुई कार्रवाई के रूप में देखा जा रहा है।
वायरल वीडियो में, महागठबंधन की प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान एक छोर पर चुपचाप बैठे अल्लावरु के सामने कांग्रेस नेता विरोध प्रदर्शन करते और नारेबाजी करते दिखे। एक नाराज नेता ने आरोप लगाया कि जहां राहुल गांधी दलितों और पिछड़ों की बात कर रहे थे, वहीं सारे टिकट 'संघ के लोगों' को दे दिए गए। नारेबाजी के दौरान 'टिकट चोर गद्दी छोड़' के नारे भी लगे, जो राहुल गांधी के 'वोट चोर गद्दी छोड़' नारे का ही पलटवार था।
कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की तमाम रणनीतिक कवायदें—चाहे वह पटना में कार्यकारिणी बैठक हो या प्रियंका गांधी की रैलियों की योजना—अब केवल मॉक ड्रिल बनकर रह गई हैं। बिहार चुनाव से पहले यह पूरा प्रकरण कांग्रेस और राहुल गांधी की कोर टीम के लिए क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन की राजनीति में अपनी स्थिति बनाए रखने के संदर्भ में एक बड़ा सबक है।